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" सेवा मार्ग " मुंशी प्रेमचन्द की कहानी | मुंशी प्रेमचंद की कहानियां #hindistories _____________________________________________ सेवा मार्ग की कहानी तारा ने बारह वर्ष दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न केशो को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया। पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका मुख मुरझाई हुई कली की भाँति था, नेत्र ज्योति हीन और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान। उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं जाती यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनोद्देश्य। क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है ? देख, तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ?' तारा कहती- 'माता, अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से प्रयाण कर जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।' इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई। रात्रि का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुँधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाण मूर्ति देवी के तन में स्फूर्ति प्रकट हुई। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुँधला दीपक देदीप्यमान हो गया। मंदिर में चित्ताकर्षक सुगंध फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चन्द्रमा की भाँति चमकने लगा। ज्योतिमय नेत्र जगमगा उठे। होंठ खुल गए। आवाज आयी-तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है? तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस भाँति काँप रहा था, जैसे प्रातःकाल के समय कंपित स्वर में किसी कृषक के गाने का ध्वनि। उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचार और पूर्ण प्रकाश का आभास प्रतीत हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति- भाव से कहा-भगवती तुमने मेरी बारह वर्ष की तपस्या पूरी की, किस मुख से तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसार की वे अलभ्य वस्तुएँ प्रदान हो, जो इच्छाओं की सीमा और मेरी अभिलाषाओं का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे। देवी ने मुस्कराकर कहा-स्वीकृत है। तारा-वह धन, जो काल-चक्र को भी लज्जित करे। देवी ने मुस्कराकर कहा-स्वीकृत है। तारा-वह सौंदर्य, जो अद्वितीय हो। देवी ने मुस्कराकर कहा-यह भी स्वीकृत है। तारा कुंवरि ने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रभात काल के समय उसकी आँखें क्षण-भर के लिए झपक गई। जागी तो देखा कि मैं सिर से पाँव तक हीरे व जवाहिरों से लदी हूँ। उसके विशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर रहे थे। सारा भवन संगमरमर से बना हुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा हुआ था। द्वार पर मीलों तक हरियाली छायी हुई थी। दासियाँ स्वर्णाभूषणों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं। तारा को देखते ही वे स्वर्ण के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथीदाँत का है। ................................................................ ....................................... ...................तारा - स्वामीजी ! मुझे अब कोई इच्छा नहीं। मैं केवल सेवा की आज्ञा चाहती हूँ। साधु - मैं दिखा दूँगा कि ऐसे योग साधकर मनुष्य का हृदय भी निर्जीव भी नहीं होता। मैं भँवरे के सदृश तुम्हारे सौन्दर्य पर मंडराऊँगा। पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा। हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव की नदी की सैर करेंगे, प्रेम कुंजों में बैठकर प्रेम-चर्चा करेंगे और आनंद के मनोहर राग गाएँगे। तारा ने कहा- स्वामीजी, सेवा-मार्ग पर चलकर मैं सब अभिलाषाओं से परे हो गई। अब हृदय में और कोई इच्छा शेष नहीं है। साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिया। _____________________________________________ Music By Calvin Clavier from Pixabay _____________________________________________ #hindistories #kahaniya #story #audiobook #audiostory #कहानियां #kahani #hindikahaniya #premchand