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नाटक :- अब रोक युधिष्ठिर को न यहाँ निर्देशक की कलम से...... "अब रोक युधिष्ठिर को न यहां" में स्त्री संघर्ष को दर्शाया गया है। भले ही आज महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं लेकिन कहीं न कहीं आज भी वे पितृ सत्तात्मक समाज उनकी राह में रोड़ा बना हुआ है। हमें इस मानसिकता से ऊपर उठकर नए समाज के निर्माण में अग्रसर होना है। हर क्षेत्र में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। नाटक की मुख्य पात्र कामिनी को प्रेम में ठोकर मिलने के बाद समाज के कुंठित और विकृत मानसिकता वाले लोगों के चंगुल में फंसकर शारीरिक एवं मानसिक शोषण और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। कहीं से भी आशा की किरण नही दिखाई देने पर कामिनी स्वयं ऐसे लोगों का प्रतिकार करती है जो उसे कमजोर और अबला समझते हैं| कथासार :-- पर्दा खुलते ही पायल की झंकार के साथ एक नर्तकी का प्रवेश होता है। एक शायर उसकी सुंदरता देख मोहित होते हुए पूछता है कि तुम कौन हो। ऐसी सुंदरता तो सतयुग, त्रेता और द्वापर में ही सुनने को मिलती है। नर्तकी कहती है कि मैं नारी हूँ। सदियों से सताई जाने वाली नारी। इस धरती पर नारी के लिए कभी सतयुग, त्रेता, द्वापर का पदार्पण नही हुआ। ये धरती हमेशा कलियुग की गहन कालिमा से आच्छादित रही। कलियुग का आरंभ तो उसी वक्त हो गया था जब राजा दुष्यंत को कण्व मुनि के आश्रम से जाने की अनुमति मिली और काले काले मेघ प्रतिशोध की अग्नि न बरसा कर प्रणय और विरह के गुनगुनाते गीतों का संवाद ले जाते थे। कलियुग तो उसी घड़ी आ गया जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ और युधिष्ठिर सिर झुकाए मुंह लटकाए देखता रहा। कलियुग तो उसी पल आ गया जब गर्भवती सीता को राम ने घर से बाहर कर दिया और पूरा परिवार, परिजन और प्रजा मौन रही। आओ मैं दिखाती हूँ कि मैं कौन हूँ। नाटक के केंद्र में कामिनी है। यह नाटक वर्तमान समाज के विभिन्न वर्गों की कलुषित, परजीवी, अत्याचारी, नृशंस प्रवृत्तियों,उसके परिणाम और निदान को दर्शाता है। बाबू साहब,पंडित,नेताजी, गेहुमन सिंह अपने स्वार्थ में लिप्त अपने - अपने तरीके से भ्रष्टाचार और शोषण में लगे हैं।ये असामाजिक,आपराधिक वर्ग के प्रतीक हैं। विजय, न्याय का पक्षधर है किंतु विरोध करने में असमर्थ। हिजड़ा बुराई के विरुद्ध बोलने के बावजूद भयभीत रहता है, और जिसके फलस्वरूप वह शक्तिविहीन और प्रतिक्रिया विहीन है। नाटक की पात्र पंडिताइन मंद स्वर में अत्याचार का विरोध करने वालों,घरों में छुप कर रहने वालों तथा समझौता और अकर्मण्यता की प्रतीक है। ऐसे लोग शुतुरमुर्ग का जीवन जीना चाहते हैं। सीमा देवी कीचड़ में रह कर कमल की तरह है और अपनी क्षमता के अनुसार अत्याचार के विरुद्ध योगदान देती है। असामाजिक, आपराधिक तत्व समाज में विरोध के अभाव में,समझौते की उर्वरा शक्ति पाकर विशाल राक्षस का आकार ले लेते हैं। कामिनी समाज की वह सुषुप्त शक्ति है जो जागृत हो कर प्रचंड अग्नि का रूप लेती है,पांडवों की भांति अन्याय,अत्याचार के विरुद्ध शस्त्र उठाती है और प्रतिरोध, प्रतिकार का अदम्य साहस दिखाती है। कामिनी का व्यक्तित्व परिवर्तन ही इस नाटक का केन्द्र बिंदु है। पात्र-परिचय कामिनी : रंगोली पाण्डेय बाबू साहब : कुमार मानव विजय : राहुल पाठक गेहूमन सिंह : सरबिन्द कुमार सोमा बाई: अर्चना कुमारी पंडित : भुनेश्वर कुमार पंडिताइन : हेमा कुमारी नेता : विजय कुमार चौधरी हिजड़ा : मंतोष कुमार सतपाल : राजकिशोर पासवान मंच से परे मंच संचालन : मानसी कुमारी प्रकाश परिकल्पना : ब्रह्मानंद पांडेय मंच परिकल्पना : संतोष कुमार, बलराम कुमार संगीत संयोजन : डॉ. शैलेंद्र जोसेफ, मयंक कुमार रूप सज्जा : माया कुमारी वस्त्र विन्यास : अनिता शर्मा पूर्वाभ्यास प्रभारी : बलराम कुमार अन्य सहयोगी : हिमांशु कुमार, अमित कुमार, राम बाबू राम वीडियोग्राफी/फोटोग्राफी : छोटू असलम