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यह गाना "अपना-अपना पराया-पराया" वाली कहावत को चरितार्थ करने वाला है. बात यह है कि हिमांचल के एक राजा के शासनकाल में भयानक अकाल पड़ने से नदी-नाले सूख गए और प्रजा में हाहाकार मच गया. समस्या के समाधान के चिंतन में राजा को स्वप्न में देवी रूल कुल ने दर्शन दिए और राजा ने उसे अपनी समस्या के बारे मे बताया तो देवी ने अकाल दूर करने के एवज में राजा के पुत्र कि बलि मांगी। जिसके लिए राजा ने असमर्थतता जताई। देवी ने फिर राजा की लड़की कि बलि मांगी इसके लिए भी राजा राजी नहीं हुआ और आखिर में देवी ने राजा से उसकी पुत्रवधु की बलि मांगी जिसके लिए राजा राजी हो गया. सुबह जागने पर राजा ने अपने पहरेदारों को अपनी बहु को उसके मायके से बुलाने के लिए भेजा जो उस समय पास के गाओं में होने वाले मेले में जाने के लिए तैयार हो रही थी. बहू की माँ ने ने मंगलवार होने कि वजह से अपनी पुत्री को ससुराल मैं जाने से रोकना चाहा परन्तु पुत्री ने एक ससुर का हुकुम जरुरी समझते हुए मायके मैं रुकने से मना कर दिया। उसने कहा कि माँ अगर ये हुकुम मेरे पति या सास का होता तो मैं उसका अनादर कर देती परन्तु यह ससुर जी का हुकुम है. इसका पालन करना ही पड़ेगा। इस तरह वह राजा द्वारा भेजी गयी डोली मैं चढ़ कर के ससुराल चल दी. उसे क्या पता था कि वहाँ उसकी बलि की पूरी तैयारी हो रही है. इस तरह ससुराल पहुँचते ही उसे जीते-जी दीवार मैं चिनवा दिया गया| बहू की जान गयी और राज्य का अकाल दूर हो गया| जनता खूब पानी पीने लगी और बहु कि जिंदगी एक गाथा बन गयी जिसे एक गाने में पीरोकर इतिहासकारों ने अमर कर दिया|