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Complete Video : • द्वयधिकशततमोऽध्यायः - कालेयोंद्वारा ... देवता बोले—भगवन्! पूर्वकालमें राजा नहुषके अन्यायसे संतप्त हुए लोकोंकी आपने ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्टक नरेशको देवेन्द्रपद तथा स्वर्गसे नीचे गिरा दिया था ।। १५ ।। पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्य सूर्यदेवपर क्रोध करके जब सहसा बढ़ने लगा तब आपने ही उसे रोका था। आपकी आज्ञाका उल्लंघन न करते हुए विन्ध्यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा है ।। १६ ।। विन्ध्यगिरिके बढ़नेसे जब सारे जगत्में अन्धकार छा गया और सारी प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी। उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सबने अत्यन्त हर्षका अनुभव किया था ।। १७ ।। सदा आप ही हम भयभीत देवताओंके लिये आश्रय होते आये हैं। अतः इस समय भी संकटमें पड़कर हम आपसे वर माँग रहे हैं; क्योंकि आप ही वर देनेके योग्य हैं ।। १८ ।। इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि लोमशतीर्थयात्रायामगस्त्यमाहात्म्यकथने त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।। १०३ ।।