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जनपद कानपुर देहात के गहलों ग्राम के मूल निवासी पं.सुरेन्द्र नाथ शुक्ल ने सन 1958 में लगभग 19 वर्ष की आयु से परशुरामी प्रारम्भ की थी| सुरेन्द्र नाथ जी जब ग्यारह वर्ष के थे तब इन्हें अपने गाँव गह्लों के बाहर जंगल में एक पेड़ के नीचे दाढ़ी और जटाएं रखी हुई मिली थीं| ये दाढ़ी-जटाएं ठीक वैसी ही थीं जैसी तत्कालीन परशुराम अभिनेताओं द्वारा अभिनय के समय प्रयोग में लायी जाती थीं| पण्डित जी उन दाढ़ी-जटाओं को घर ले आये और बच्चों के साथ मिलकर रामलीला का प्रहसन करने लगे| जिसमें आप उन्हीं दाढ़ी-जटाओं को लगाकर परशुराम का अभिनय करते थे| उसके कुछ वर्षों बाद शुक्ल जी ने ख्यातिलब्ध परशुराम अभिनेता पं.शिवदत्त अग्निहोत्री की शिष्यता ग्रहण करके औपचारिक रूप से सन 1958 में परशुराम का अभिनय प्रारम्भ किया और अगले 53 वर्षों तक परशुरामी करते हुए कानपुर तथा आसपास के जनपदों में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई| स्वर, स्वरुप और साहित्य की दृष्टि से आप कानपुर शैली की रामलीला के उत्कृष्ट परशुराम अभिनेता थे| परिषदीय विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त पं.सुरेन्द्रनाथ शुक्ल ने सन 2013 में अपने गाँव गहलों के देवी मन्दिर में अन्तिम बार परशुरामी करके रामलीला से भी सन्यास ले लिया था| कानपुर के वाई-ब्लॉक किदवई नगर में आवास बनाकर रहने वाले पं.सुरेन्द्र नाथ शुक्ल ने 9 जून 2019 को इस संसार से भी विदाई ले ली| वर्ष 2013 मंो अभिनय से सन्यास लेने के बाद भी रामलीला से उनका अनुराग जीवनपर्यन्त बना रहा| किदवई नगर तथा आसपास के रामलीला मंचों पर वह लक्ष्मण परशुराम संवाद के समय प्रायः दर्शक रूप में उपस्थित रहते थे| उन्होंने अपने पुत्र कामद शुक्ल को तो रूचि के बाद भी परशुरामी नहीं सीखने दी लेकिन पौत्र राघव ने खेल ही खेल में यह कला उनसे प्राप्त कर ली| बड़ा होकर वह परशुरामी करेगा या नहीं यह भविष्य की परिस्थितियों पर निर्भर है| प्रस्तुत है पं.सुरेन्द्र नाथ शुक्ल से उनकी अभिनय यात्रा तथा रामलीला के विभिन्न सन्दर्भों पर 28 दिसम्बर 2016 को हुई विस्तृत बातचीत: कृपया वीडियो को Like तथा अधिक से अधिक Share करते हुए Subscribe करके bell icon दबाने की महती कृपा करें| डॉ.दीपकुमार शुक्ल