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310साल पुरानी सोने-चाँदी की ताज़िया | हज़रत रौशन अली के इमामबाड़े का जानिये इतिहास 2 года назад


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310साल पुरानी सोने-चाँदी की ताज़िया | हज़रत रौशन अली के इमामबाड़े का जानिये इतिहास

#moharramspecial #history #imambara #gorakhpur #newsdastaktoday मियां साहब इमामबाड़ा ऐतिहासिक इमारत ही नहीं इतिहास का जीवंत दस्तावेज भी है गोरखपुर। मियां बाजार स्थित मियां साहब इमामबाड़ा इस्टेट की ऐतिहासिक इमारत इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। यह इमामबाड़ा सामाजिक एकता व अकीदत का केंद्र है। यह हिंदुस्तान में सुन्नियों संप्रदाय का सबसे बड़ा इमामबाड़ा है। इमामबाड़े के दरो दीवार व सोने-चांदी की ताजिया में अवध स्थापत्य कला व कारीगरी रची बसी नज़र आती है। इमामबाड़ा के गेट पर अवध का राजशाही चिन्ह भी बना हुअा है। करीब तीन सौ सालों से हज़रत सैयद रौशन अली शाह द्वारा जलाई धूनी आज भी जल रही है। मियां साहब इमामबाड़ा इस्टेट के संस्थापक हजरत सैयद रौशन अली शाह ने 1717 ई. में इमामबाड़ा तामीर किया। विकीपीडिया में भी इमामबाड़ा की स्थापना तारीख़ 1717 ई. दर्ज है। वहीं ‘मशायख-ए-गोरखपुर’ किताब में इमामबाड़ा की तारीख 1780 ई. दर्ज है। इसी समय मस्जिद व ईदगाह भी बनीं। खैर। हजरत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली आये। इतिहासकार डा. दानपाल सिंह की किताब गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास (1200-1857 ई.) खण्ड प्रथम में गोरखपुर और मियां साहब नाम से पेज 65 पर है कि यह एक धार्मिक मठ है जो गुरु परम्परा से चलता है। अवध के नवाब आसिफुद्दौला की बेगम ने सोने-चांदी की ताजिया यहां भेजीं। जब अवध के नवाब ने गोरखपुर को अंग्रेजों को दे दिया तब अंग्रेजों ने भी इनकी माफी जागीर को स्वीकृत कर दिया। इसके अतिरिक्त कई गुना बड़ी जागीर दी। अवध के नवाब आसिफुद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। हाथी पर सवार शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये दरवेश रौशन अली शाह बैठे थे। शिकार के दरम्यान नवाब ने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाए बैठे हैं। उन्होंने अपना कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दिया। दरवेश ने उस धूनी में शाल को फेंक दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुए। इस पर रौशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दोशाला (शाल) निकाल कर नवाब की तरफ फेंक दिया। यह देख नवाब समझ गए कि यह कोई मामूली शख़्स नहीं बल्कि अल्लाह का वली है। नवाब आसिफुद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी। हजरत सैयद रौशन अली शाह का दांत, हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ तथा बर्तन आदि आज भी इमामबाड़े में मौजूद है। हजरत सैयद रौशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलाई थी। वह आज भी सैकड़ों वर्षाें से जल रही है। यहां सोने-चांदी की ताजिया भी है। जो मुहर्रम माह में दिखाई जाती है।

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