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Dhopaap Dham| धोपाप धाम लंभुआ सुलतानपुर|Gomti river|Lord Rama| रामायण |दशहरा#Dhopaap#Dhopap dham#sultanpur#Uttar Pradesh दोस्तों, विष्णुपुराण वायुपुराण और पद्मपुराण के अनुसार रावण का वध करने के उपरांत जब श्री राम अयोध्या वापस लौटे और अयोध्या के सिंहासन पर विराजमान हुए लेकिन सिंहासन पर बैठने के बाद उनका मन शांत रहने लगा तब उन्होंने अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ को यह बात बताई और तब ,कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा- हे राम आपने रावण का वध करके संपूर्ण पृथ्वी को आसुरी शक्तियों से मुक्ति दिलाई है किंतु परम तपस्वी पुलस्त्य मुनि का नाती एवं ब्राह्मण शिरोमणी विश्रवा के पुत्र रावण जैसे वेद-वेदांत का ज्ञानी पूरी पृथ्वी पर दूसरा कोई नहीं था इसलिए आपसे जाने अनजाने ही सही ब्रह्म हत्या का पाप हुआ है। जिससे छुटकारा पाने के लिए श्रीराम ने जेष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि यानि 10 जून को आदि गंगा कही जाने वाली गोमती नदी के पावन जल में अवध वासियों की उपस्थिति में स्नान करके सभी ब्राह्मणों एवं संतों का गौरव बढ़ाया। तब से अवध प्रदेश में रहने वाले लोगों के लिए यह जगह पूजनीय हो गई और इसका नाम पड़ गया- धोपाप। कई लोग ऐसा मानते हैं कि मध्यकालीन भारत में जब अवध के कुछ क्षेत्रों पर भरों का आधिपत्य था तब इस स्थान पर गोमती नदी के किनारे राम मंदिर की स्थापना की गई। लेकिन जो प्रमाणित इतिहास प्राप्त होता है उसकी शुरुआत होती है 1248 से। जब मैनपुरी के चौहान राजपूत राजा बरियार सिंह ने पट्टी रियासत के बेलखरियों को विस्थापित करके अपने साम्राज्य की स्थापना की। इन्हीं के वंशज राय वीर बहादुर सिंह ने गोमती नदी के किनारे दीपनगर नामक स्थान पर अपने नए राजवंश का प्रारम्भ किया एक मान्यता के अनुसार गोमती नदी में स्नान करने के पश्चात इसी मार्ग से अयोध्या वापस लौटते हुए श्रीराम ने यहां पर दीप जलाया था। चूंकि दीप को अवधी में दिया बोलते हैं इसलिए इसका नाम धीरे धीरे दियरा पड़ गया। कई पीढ़ियां गुजर जाने के बाद सन 1860 में पैदा हुए राजा रूद्र प्रताप सिंह ने अपने जीवन के अंतिम काल खंडों में स्वयं को धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में समर्पित कर दिया। धर्म शास्त्रों के प्रति लोगों की आस्था को दृढ़ करने के लिए उन्होंने कई प्रयास किए। प्राचीन काल के खंडहर होते जा रहे मंदिरों का पुन: जीर्णोद्धार करवाया। उनके इसी प्रयास से धोपाप में स्थिति यह राम मंदिर आधुनिक समय में काल के साथ लड़ता हुआ अभी भी अस्तित्व में है। गरीबों के उपचार के लिए उन्होंने आयुर्वेदिक हॉस्पिटल के साथ ही धर्मशाला एवं संस्कृत विद्यालयों की भी स्थापना की। 1886 में संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा इनकी नियुक्ति माननीय न्यायाधीश के तौर पर हुई। 22 अगस्त 1914 को उनकी मृत्यु के बाद दियरा के राजवंश का इतिहास स्वयं में समेटे ये विशाल हवेली समय के साथ खंडहर होती जा रही है। आज भी दूर-दूर से लोग इस हवेली को देखने के लिए यहां पर आते हैं। लगभग 150 साल से अधिक का पुराना इतिहास इस हवेली के एक-एक ईट में दफन है। कुछ ढह चुके हैं और कुछ ढहने वाले हैं। धन्यवाद [email protected] Thank you for Watching My channel Groundfact India / groundfactindia