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सुतीक्ष्ण मुनि कृत श्रीराम-स्तुति (sutīkṣṇa muni kr̥ta śrīrāma-stuti) 4 года назад


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सुतीक्ष्ण मुनि कृत श्रीराम-स्तुति (sutīkṣṇa muni kr̥ta śrīrāma-stuti)

अरण्यकाण्ड प्लेलिस्ट    • रामचरितमानस गायन (अरण्यकाण्ड)   चौपाई कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥ भावार्थ : मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥1॥ * जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥ निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥ भावार्थ : हे लाल कमल के समान नेत्र और सुंदर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चंद्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस, विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥4॥ * संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥ भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥ भावार्थ : जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड़ हैं, अत्यंत कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं, आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनंद देने वाले हैं, वे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥5॥ * निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥6॥ भावार्थ : हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से अतीत! हे अनुपम, निर्मल, संपूर्ण दोषरहित, अनंत एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥6॥ * भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥ भावार्थ : जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यंत ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥7॥ * अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥8॥ भावार्थ : जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के बड़े भारी पापों का नाश करने वाला है, जो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनंद देने वाले हैं, वे श्री रामजी निरंतर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥8॥ * जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥ जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥ भावार्थ : हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अंतर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥10॥ * अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥ भावार्थ : ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥11॥ * परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥ मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥ भावार्थ : (और कहा-) हे मुनि! मुझे परम प्रसन्न जानो। जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ! मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है, (क्या माँगू, क्या नहीं)॥12॥ * तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥ भावार्थ : ((अतः) हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए। (श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे मुने!) तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ॥13॥ * प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥ भावार्थ : (तब मुनि बोले-) प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैंने पा लिया। अब मुझे जो अच्छा लगता है, वह दीजिए॥14॥ दोहा : * अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥ भावार्थ : हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥11॥

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